Thursday 19 May 2011

ख्वाबगाह





    ट्रेन में नहीं मिलता रिजर्वेशन ,
            बस में सीट मिलना है दुश्वार |
    सड़क पर चहलकदमी आसान नहीं ,
           बगीचे बनें जानवरों के आरामगाह |
   टीवी देख -देख मन उकता गया ,
          मन बाहर जानें को है बेकरार |
   श्रीमानजी को मिलती नहीं छुट्टी ,
         अब उनसे हो गई है हमारी कुट्टी |
  आँखों में है पर्वतीय हरियाली के सपनें ,
        मन है मायूस जाएँ तो जाएँ कहाँ|
 शायद सारे जहां से सुंदर है  ,
    यही है मेरा अपना ख्वाबगाह|

2 comments:

  1. बहुत अच्छी लगी यह रचना |सच है अपने घर जैसा आराम कहाँ |
    आशा

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  2. बहुत अच्छी सोच है ! !
    काशी देखी मथुरा देखी देख लिया हमने जग सारा
    अपना घर है सबसे न्यारा !
    सुन्दर रचना !

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