Monday 2 May 2011

आज का कल

  अलग -अलग रिश्तों से ,
                   जुड़ी  हुई भावनाएं विभिन्न |
कहीं शहद सा  माधुर्य है ,
                    कहीं विषाक्त होता मन |
  उन्मीलित हे प्रज्ञाचक्षु ,
                  आत्मा है मोह पाश में |
 सर्वत्र आडम्बर का डेरा है ,
                   सत्य जान कर भी हैं अनभिज्ञ |
ये कैसा चातुर्य है मानस का ,
                  कर देता अपनों को अपनों से दूर |
क्यों  सुषुप्त  हो गए जज्बात ,
                   रिश्तों में कैसा नफा -नुकसान |
   काश कभी सोच पाते इंसान ,
                    आज का भी कल भविष्य होगा |
         

2 comments:

  1. ह्रदय में उठते ज्वार का बहुत सुंदर चित्रण किया है |बहुत बहुत बधाई |
    आशा

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  2. बहुत सुन्दर रचना !
    उन्मीलित हे प्रज्ञाचक्षु ,
    आत्मा है मोह पाश में |
    सर्वत्र आडम्बर का डेरा है ,
    सत्य जान कर भी हैं अनभिज्ञ |
    गहन चिंतन से परिपूर्ण पंक्तियाँ ! यही जीवन का सत्य है ! इतनी अच्छी अभिव्यक्ति के लिये बधाई !

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